अन्तर्मुखी हूँ मैं..!!

बन पाता है जो मुझसे
उतना योगदान मैं देती हूँ

जितनी मेरी क्षमता है
उतनी ही सेवा करती हूँ|

थक जाती हूँ जब मैं ज्यादा
बिस्तर पर पड़ जाती हूँ

फिर तो अपने आप भी मैं
कहाँ अपनी सेवा कर पाती हूँ|

दूसरों को हँसना सिखलाती
खुद चोरी-चोरी आँसू बहाती

तन्हा ही खुश रहती हूँ मैं
भीड़ में साँस कहाँ ले पाती हूँ |

हाँ, सब कहते हैं यही मुझसे
अन्तर्मुखी है तू प्रज्ञा !

बहिर्मुखी व्यक्तित्व के जैसे
प्रपंच कहाँ कर पाती हूँ |

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Responses

  1. अंतर्मुखी हृदय की कोमल भावनाएं और उनका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई कवि प्रज्ञा जी की बहुत सुन्दर रचना

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