आँसू
इस हृदय क्षितिज के,
शून्य तल पर काली घटाएं,
हैं जब-जब छातीं ,
हृदय पटल को विदीर्ण कर,
वेदना ऐसे अकुलाती,
जैसे काली घटाओं बीच,
दामिनी है कड़कड़ाती,
अविरल बरसती नयनो के,
बाँध तोड़ जाती ।
हृदय क्षितिज के शून्य,
पटल पर व्यथा कथा,
की भूली बिसरी यादें,
ऐसे फिर-फिर आती,
जैसे चट्टानों के बीच,
ध्वनि है खुद को दोहराती ।
सागर के अन्तर में जैसे,
है द्रवित पलों की ज्वार भाटा,
विह्वल लहरों का है कोलाहल,
ऐसे ही इस हृदय में ,
है अभिलाषाओं की,
क्रंदन क्रीड़ा, विस्मृत,
पलों की पीड़ा ।
इन विस्मृत यादों को,
कौन है उकसाता,
यदा-कदा भ्रमित कर,
उनमें नव आस है जगाता,
वह है चैतन्य अबोध मन हमारा,
जो रह-रह कर भरमाता ।
विस्मृत व्यथित पलों का,
जगना है सुख का होना सपना,
मृगतृष्णा थी ,उन उमंगित,
मादकता भरे. क्षणों में बहना ।।
https://ritusoni70ritusoni70.wordpress.com/2016/12/29
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