आंगन
बचपन का आंगन कहीं छूट गया ।
पुराना मकान था जो टूट गया ।।
ऊँची इमारतें खड़ी वहाँ,
सैकड़ों परिवारों का बसेरा है ।
चारदीवारी में ही रात,
घर के भीतर ही सवेरा है।
ऊँची इमारतें आज हँसती हम पर,
मजबूरी में इंसान खून के पी घूंट गया ।
बचपन का आंगन कहीं छूट गया ।।
हवाओं में रहता इंसान,
आंगन तो एक सपना है ।
ना तो जमीन अपनी,
ना ही छत अपना है ।
जमीन का एक टुकड़ा आज बचा नहीं,
लगता है किस्मत भी हमसे रूठ गया ।
बचपन का आंगन कहीं छूट गया ।।
आंगन के बगीचे में,
फूलों की खुशबू बहती थी।
ठंडी हवा, चिड़ियों की चहक,
हरियाली सदा रहती थी।
तुलसी घर आंगन की शोभा होती,
सारा बगीचा गमलों में सिमट गया ।
बचपन का आंगन कहीं छूट गया ।।
घर के आंगन में ही,
दोस्तों संग खेला करते थे ।
कूद – फांद, धमा – चौकड़ी,
पेड़ों में झूला करते थे ।
खेला हमने कल जिस आंगन में,
बच्चों से हमारे आज वो लूट गया ।
बचपन का आंगन कहीं छूट गया ।।
देवेश साखरे ‘देव’
Nice
Thanks
आईना
धन्यवाद
Bahut hi sundar
धन्यवाद
वाह
धन्यवाद
Ni
Thanks