इंसानियत
नहीं बन सके महान धरा पर, इंसानियत का बने सहारा,
जग रूठे पर रब ना रूठे, ऐसा हो सेवा भाव हमारा।
दीन हिन् बिखरता वैभव, कुंठित हुई भावनाये ऐसे,
शव समान रिश्ते ऐठे है, मन मुरझाया सूखे पत्तो जैसे।
द्रवित बेबस घूमती मानवता से, शब्द सभी निशब्द हो गये,
दुःखित हुआ दिल, मचल उठा मन, परिवर्तन हित कुछ करने को।
उठो साथियो ले मशाल अब, अटल संकल्प से नव निर्माण हित पैर धरो,
भला ना कर सके यदि किसी का, बुरा किसी का अब ना करे।
प्रभु ऐसा आशीष दिलाओ, भूखा नंगा ना कोई सो पाये,
दुःख पीड़ा दारिद्र् हरो सब, हर घर आँगन
खुशियां छा जाये।
ना आने दे कलुषित विचार, छोड़े दम्भ और झूठा अहंकार,
ये तेरा ये मेरा और कौन पराया, सब से रखे उत्तम व्यवहार।
नये साल में नयी उमंगें, नये विचार संग साथ रखे,
सब के जीवन में खुशियों के, रंग कई हज़ार भरे।
एक एक जुड़ते जुड़ते हम, कौटि रत्न माला बन जाये,
भारत माँ का मान बढ़ाने, हम सब मिल कर कदम मिलाये।
स्वरचित – सम्पत नागौरी “सौरभ”
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