उन्नत की आंधी
मुझे कैद गुलामी पसंद नहीं
मुझे उड़ने दो मुझे उड़ना है
इस अंबर की रणभूमि में
मुझे खोल के पंख उतरना है
मेरा जीता जीवन मृत् हो गया
घर की चार लकीरों में
मैं उड़ ना सकी मेरे पैर बंधे हैं हिंसा की जंजीरों में कभी बांदा मुझे प्रथाओं में कभी जिंदा जलाया चिताओं में अपनी करनी इतराते हैं अंगार डाल मेरी राहों में चाय कितने जाल बिछाना तुम जंजीर और ताले लगाना तुम बढ़ना मुझे उन्नत की राहों पर चाहे कितनी भी पहले लगा लो तुम अरे दारु कह देना उन प्रथा के ठेकेदारों से अब आंधी उठी जो रुक ना सके छोटी मोटी दीवारों से
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