“कचरापार्टी”
उसकी आवाज सुनकर
आँख खुल जाती हैं
उनींदी आँखों में ही
उठ पड़ती हूँ बिस्तर से
धड़कनें तेज और तेज हो जाती हैं
रात होती है ब्रह्म मुहूर्त में मेरी
उठने में दोपहर हो जाती है
पर जब से आने लगी है
कचड़े वाली गाड़ी
मेरी नींद हराम हो जाती है
अजान की आवाज से खुल ही
जाती थी आँखें !
अब तो
नगरपालिका की गाड़ी भी
आ जाती है
“गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल”
ये गाना लाउडस्पीकर पर रोज
बजाती है
मन आता है मार-पीटकर
उसी को कचरा बना दूँ
कसम से जब आँख खुल
जाती है
यूँ ही गर रोज गाड़ी आती रही
तो मैं पागल हो जाऊंगी
फिर तो सड़कों का कचरा
खुद ही बीनने लग जाऊंगी…
बहुत खूब, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति प्रज्ञा जी, कविता में यथार्थ है।
Thanks
यथार्थ चित्रण और सटीक प्रस्तुति
यह मेरी जिन्दगी का कड़वा सत्य है
हा हा हा कड़वा सत्य
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
Thanks
अतिसुंदर
बड़े सुन्दर भाव प्रगट है
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अब भी कचरा उठा रही हो,
हाथों से नहीं कलम से,
भारत की भ्रष्टाचार मिटा रही हो,
बदमाशों की औकात बता रही हो
चाहे हाथरस की घटना या आरक्षण हो,
कलम से कचरा उठा रही हो🤔🙂