“कलम और स्याही”
ओ विरह की वेदना !
मुझको पकड़ा दो कलम
साथ में दे दो मुझे
रात की तन्हाइयां
और दो मुझको तुम
रंग-बिरंगी स्याहियां
अधखुली-सी इक कली
रात यों कहने लगी
“कलम और स्याही” ना हो तो
दर्द कैसे लिखोगी
मैं समझ ना कुछ सकी
सोंच में लिपटी रही
बोल फिर कुछ ना सकी
फिर मौन-सी सिसकी उड़ी….
बहुत खूब लाजवाब अभिव्यक्ति
Very nice poem 👏👏👏👍👍
अतिसुंदर भाव
बहुत खूब