कलम
चाहे बिक जाएँ मेरी सारी कविताएं पर,
मैं अपनी कलम नहीं बेचूंगा,
चाहे लगा लो मुझपर कितने भी प्रतिबन्ध पर,
मैं अपने बढ़ते हुए कदम नहीं रोकूँगा,
बिक ते हैं तो बिक जाएँ तन किसी के भी,
पर मैं अपनी सर ज़मी से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ूंगा,
भरी पड़ी है अहम और भ्र्म से ये दुनियां तो रहे ऐसे ही,
पर मैं “राही” अपनी अविरल राह नहीं छोड़ूगा,
बना कर हर रोज तोड़ देते हैं लोग अक्सर रिश्ते इस ज़माने में,
पर मैं खुद से ही बनाई अपनी पहचान से अनुबन्ध नहीं तोड़ूंगा,
कहते हैं अक्सर पागल तो कहे लिखने वालों को लोग, पर मैं अपना लेखन नहीं छोडूगा,
चाहे बिक जाएँ मेरी सारी कविताएं पर,
मैं अपनी कलम नहीं बेचूंगा,
राही (अंजाना)
वाह बहुत सुन्दर रचना!
और सपत इसी पर अटल रहे और निरंतर प्रयास करते रहे लेखन का जिससे समाज को एन नया ऐना (दर्पन) मिल सके।।
धन्यवाद
Good