*कागज़ की कश्ती*
कागज़ की कश्ती लेकर,
दरिया पार करने चल दिए।
हम कितने नादान थे,
अरे! यह क्या करने चल दिए।
बचपन तो नहीं था ना,
कि कागज़ की कश्ती चल जाती,
भरी दोपहर में यह क्या करने चल दिए।
दरिया बहुत बड़ा था,
आगे तूफ़ान भी खड़ा था,
तूफ़ानों में कश्ती उठाकर,
कागज़ की चल दिए।
हम भी कितने नादान थे,
अरे! यह क्या करने चल दिए।।
____✍️गीता
Bacpn ki yaad dila di geeta ji
Thank you very much Noori ji
“कागज़ की कश्ती” बहुत सुंदर कविता, बहुत लाजवाब भावाभिव्यक्ति
उत्साहवर्धन हेतु बहुत-बहुत आभार सतीश जी समीक्षा के लिए हार्दिक धन्यवाद सर
बहुत खूब
सादर धन्यवाद भाई जी 🙏