किसानों का किया है इन्हीं ने तो बुरा हाल
आतंकियों के ठिकाने बदल रहे हैं
शिकारियों के पैमाने बदल रहें हैं
छिप-छिप के करते थे कभी ठगी जो
लालच के उनके आशियाने बदल रहे हैं
भोले-भाले को ठगना ही जिनका काम
चींटियों की तरह बांबियां बनायी सरेआम
सब का ही कर रखा है देखो रास्ता जाम
इतने निष्ठुर तो नहीं कहीं होते हैं किसान
बेईमानों की प्रत्यक्ष है पहली बार मंडली
लूट का पता बता रही हैं तन जमी चर्बी
नहीं है ये हितकारी न ही कोई किसान
फुटपाथ पे ले आई इन्हें इनकी खुदगर्जी
किसानों का किया है इन्हीं ने तो बुरा हाल
उनके हक को खा-खा करने आये हलाल
टिड्डियों की तरह छाये हैं जहां भी मंडी
फसल वाले परेशान ऐसे जैसे करते थे फिरंगी
आश्चर्य है कि दिल्ली अब तक है सहनशील
उन्हें नहीं दिखा क्या रूप इनका अश्लील
ये हैं सभी के दुश्मन सभी के ही विरोधी
पर निकले चींटियों के तो शहर की ओर हो ली
समसामयिक यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हुई बहुत सुन्दर रचना
बहुत ही सुन्दर रचना
Beautiful poetry
वर्तमान स्थिति पर कटाक्ष करती बेहतरीन रचना। समसामयिक चित्रण। कवि सोच व अभिव्यक्ति दोनों ही बिंदास हैं।
Nice