कुछ तो रिश्ता है दीवारों से…..
बेईमान-सा मन
गिरती-उठती दीवारें
आज सिर उठाकर खड़ी हैं
यूँ तो सरचढ़ी हैं
पर कुछ जिम्मेंदारियां भी हैं
छत को संभाले हुए
दिन भर खड़ी रहती हैं
शाम को थककर चूर हो जाती हैं
रात के एकाकीपन में
मेरी नज़रों से फिसलती हैं
सुबह उठकर
मेरी ओर बढ़ती हैं
कुछ तो रिश्ता है दीवारों से
शायद कुछ कहना चाहती हैं!!
बहुत खूब, जीवन की तुलना दीवारों से करती हुई बहुत सुंदर कविता
दीवारों का सुंदर मानवीकरण
जी बिल्कुल,
समीक्षा के लिए धन्यवाद
अतिसुंदर भाव
धन्यवाद
धन्यवाद
धन्यवाद