**कुर्बानी दो कुत्सित सोंच की**
जो बंदे बकरा-मुर्गा काट
छौंककर खाते हैं
वो मानुष भगवान के घर में
उल्टा लटकाए जाते हैं
निर्जीवों का तो इस जग में
कोई मान नहीं
क्या जीवित जीवों में भी
कोई जान नहीं ?
महसूस तो हैं वह भी करते
प्रेम और नफरत को
तो आखिर क्या कष्ट नहीं
होता होगा उन बकरों को
देते हो कुर्बानी तुम जीवित
जन्तुओं की
और मांगते हो बदले में
रहमत तुम खुदा की !
देनी है यदि बलि तो
अपनी कुत्सित सोंच की दे डालो
जिनको भूनकर खाते हो
उनको अपने घर में पालो
प्यार करेंगे वो इतना की
आँखें नम हो जायेंगी
खुदा से ज्यादा उनके दिल की
दुआएं तुम्हें मिल जायेंगी
बंद करो तुम जीवित
जीव-जन्तुओं को खाना-पीना
वरना किसी दिन तुमको इनकी
बद् दुआएं लग जायेंगी..
बहुत ही सुन्दर विचार प्रस्तुत किए हैं प्रज्ञा आपने अपनी कविता के माध्यम से ।सच ही है कुर्बानी कुत्सित विचारों की करनी चाहिए ना कि बेजुबान मासूम जानवर की, इससे कौन सा ख़ुदा खुश होता होगा भला
“क्षुधा मिटाने की खातिर कुदरत ने फल-फूल बनाए हैं,
फ़िर पशुओं को क्यूं मारा जाए, वो भी तो कुदरत से आए हैं” ।
बहुत सुंदर शिल्प, लय बद्ध शैली और बहुत सुन्दर विचारों से सुसज्जित बहुत संवेदनशील रचना ।
धन्यवाद दी
बहुत ही सुंदर भावाभिव्यंजना, जीवनानुभूतियों का बहुत सुंदर चित्रण।
धन्यवाद
मांस मदिरा सेवन करे जो लंपट में समय बीताता है।
वही आदमी पहला नंबर कुंभकर्ण में आता है।।
Thanks sir
अतिसुंदर