खता
लम्हों ने खता की है
सजा हमको मिल रही है
ये मौसम की बेरुखी है
खिजां हमको मिल रही है
सोचा था लौटकर फिर ना
आएंगे तेरे दर पर
बैठे हैं तेरी महफिल में
खुद से ही हार कर
कह लेते हाले दिल
क्यों ये जुबां सिल रही है
ये मौसम की बेरुखी है
खिजां हमको मिल रही है
लम्हों ने खता की है
सजा हमको मिल रही है
हम भी तो मानते हैं
दिल के महल का राजा
जाने से पहले दिलबर
एक बार फिर से आजा
मुरझा चुकी कली भी
फिर आज खिल रही है
ये मौसम की बेरुखी है
खिजां हमको मिल रही है
लम्हों ने खता की है
सजा हमको मिल रही है
तेरे बगैर काटेंगे हम
कैसे उम्र भर
तू ही बता दे हल मुझे
ऐ मेरे हमसफ़र
बचपन से तू ही तू
मेरी मंजिल रही है
लम्हों ने खता की है
सजा हमको मिल रही है
ये मौसम की बेरुखी है
खिजां हमको मिल रही है।
वीरेंद्र सेन प्रयागराज
सुन्दर अभिव्यक्ति
बेहतरीन