खुली किताब

मैं तो खुली किताब हूँ, यूँ भी कभी पढ़ा करो।
अच्छा लगता है, बेवजह भी कभी लड़ा करो।

मेरे कदम तेरी ओर उठते, तुझपे ही रूकते हैं,
एक कदम मेरी ओर, तुम भी कभी बढ़ा करो।

काँटों से दामन तेरा, ना उलझने दिया कभी,
फुल बनकर मुझपे, तुम भी कभी झड़ा करो।

मैं तो तेरे इश्क में, पहले से ही गिरफ़्तार हूँ,
शक के कटघरे में, मुझे ना कभी खड़ा करो।

बदला नहीं, आज भी हूँ वही, देखो तो गौर से,
बदलने का दोष मुझपे, यूँ ना कभी मढ़ा करो।

देवेश साखरे ‘देव’

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