चाहता हूं जल बनूँ
चाहता हूं जल बनूँ
धो डालूँ सारे दाग-धब्बे
नीर बनकर प्यास लोगों की
बुझाऊँ, तृप्त कर दूं।
या बनूँ नैनों का जल
गीले करूँ वियोग के पल
या बहूँ मैं प्यार की सरिता
करूँ कल-कल व छल-छल।
या बदरिया बन के बरसूं
रिम-झिमा झम, झम-झमा झम
जैसे किसी प्रियसी की पायल
छम-छमा छम-छम छमा छम।
या किसी झरने के पानी सा
बनूँ मैं श्वेत निर्मल,
आप आओ जब नहाने
बिंदास कर दूं आपके पल।
Wow great lines
Thank you
वाह वाह क्या बात है
सादर धन्यवाद जी
वाह सर,”जल बन कर सारे दाग धब्बे धो दूं,या लोगों की प्यास बुझाऊं,या बदरिया बन के बरसुं ” जल की महत्ता भी बताई और स्वयं जल बन कर सबकी भलाई करने की खूबसूरत भावना का वर्णन भी किया।
अनुप्रास अलंकार की अद्भुत छटा बिखेरती हुई शानदार कलम की शानदार रचना, सतीश जी ,लेखनी की इतनी सुन्दर भावनाओं को अभिवादन….
आपके द्वारा की गई बेहतरीन समीक्षा प्रेरक, मार्गदर्शक और उत्साहवर्धक है। इसके लिए धन्यवाद शब्द कम पड़ रहा है। कविता के भाव को समझने और इतना सुंदर विश्लेषण करने हेतु आपका सादर अभिवादन।
अतिसुन्दर, वाह
Thank you ji
बहुत उम्दा
Thank you ji