जिंदगी की चली दौड़ है
जिंदगी की चली दौड़ है
भागने में लगे आप-हम
प्यार करने की फुर्सत नहीं है
रोटियां खोजनी हैं जरूरी।
पालना जिसको परिवार है
उसको कैसे भी करके स्वयं को
काम में है खपाना, कमाना
रात-दिन जूझना है जरूरी।
रात बीती सुबह जब हुई
चल पड़े काम पर हम दीवाने
बोझ ढ़ोया मजूरी कमाई
शाम लौटे फटेहाल बनकर।
आप भी कुछ नहीं कह सके
हम भला बोलते भी तो क्या
सो गए उस थकी नींद में
सो गया प्यार भी ऐसे थककर।
फिर सुबह में वही चक्र घूमा
जिन्दगी घूमती सी रही
फर्ज अपना निभाते निभाते
जिन्दगी बीतती ही रही।
प्यार की बात नेपथ्य में जा
खो गई फिर न जाने कहाँ
रह गए आप हम ताकते ही
वो गई बात जाने कहाँ ।
——- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
क्या शानदार रचना की है वाह सर
जिंदगी की दौड़ में फ़र्ज़ और प्रेम के बीच जूझते व्यक्ति पर आधारित बहुत सुंदर और रोचक रचना
वास्तव में सर आज के इस भौतिक युग प्रेम का स्थान मानव हृदय से क्षण प्रति क्षण कम होता जा रहा है, आपने यथार्थ चित्रण किया है
बहुत खूब
बहुत खूब