जिन्दगी की शाम
हर सुबह होती है
मुस्कुराते हुए
रात होते-होते
आँख भर आती है
जिन्दगी की उलझनों में
उलझती हूँ ऐसे कि
जिन्दगी की शाम हो जाती है
बेबसी, आँसू, रुसवाई के सिवा
कुछ नहीं है मेरे पास
हँसने की कीमत भी
अदा करनी पड़ती है
रूठकर लिखा होगा शायद
उसने मुकद्दर
तभी तो जीतकर भी
हर बाजी पलट जाती है
याद आती है वो बचपन की आजादी
अब तो खुली फिजाओं में भी
सांस रुक जाती है…
ज़िन्दगी के दृष्टिकोण को व्यक्त करती हुई कवि प्रज्ञा जी की बेहतरीन रचना। कथ्य और शिल्प बहुत सुंदर है
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सुन्दर
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अतिसुंदर