जीवन की पहेली
मैं दौड़ती ही जा रही थी,
ज़िन्दगी की दौड़ में।
कुछ अपने छूट
गए इसी होड़ में।
मैं मिली जब कुछ सपनों से,
बिछड़ गई कुछ अपनों से।
दौड़ती जा रही थी मैं,
किसी मंज़िल की चाह में,
कुछ मिले दोस्त,
कुछ दुश्मन भी मिले राह में।
कभी गिरती कभी उठती थी,
इस तरह मैं आगे बढ़ती थी।
कभी चट्टाने थी राहों में,
कभी धधकती अनल मिली।
कहीं-कहीं दम घुटता था,
कहीं महकती पवन मिली।
यूं ही तो चलता है जीवन,
कैसी यह जीवन की पहेली।
कुछ यादों के फूल खिले,
कुछ खट्टी-मीठी स्मृति मिली।।
______✍️गीता
बहुत सुंदर
मनु तू दौड़ता रह निरंतर
गलत सही का कर अंतर
ठोकरें मिलेंगी अनन्तर
गिर उठ फिर चल निरंतर
बहुत सुंदर समीक्षा है, बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏
Beautiful
Thanks bhai
Umda abhivyakti Sundar prastuti
बहुत-बहुत धन्यवाद प्रज्ञा जी
अतिसुंदर
Tq