“जीव हत्या पाप है”
वो छोटे-छोटे मासूम से थे
कमरे में मेरे बैठे थे
मैं गई रात को देर से थी
उस समय थोड़ी-सी सर्दी थी
फिर देखा मैंने उनको तो
मन में हमदर्दी जाग उठी
वह सिकुडे़-सिकुड़े बैठे थे
एक नहीं चार-पांच थे
मैंने उनको अलमारी में बिठाया
ऊपर से कम्बल भी ओढ़ाया
दूध रखा एक प्याली में
रुई के फाहे से उन्हें पिलाया
उनकी सेवा करके एक
शान्ति-सी मन को आई थी
फेंक दिया मैंने फिर झट से
चूहामार जो लाई थी…
जीवमात्र पर दया करने को प्रेरित करती सुन्दर पंक्तियाँ। कवि प्रज्ञा की सुंदर संवेदना, भाषा व शिल्प की दृष्टि से लाजवाब पंक्तियाँ
धन्यवाद
जीवों पर दया बरसाती हुई बेहत खूबसूरत पंक्तियां । सुंदर भाषा से सुशोभित लाजवाब रचना
धन्यवाद
बेहतरीन