ठंड बढ़ती जा रही है
ठंड बढ़ती जा रही है
वह सिकुड़ता जा रहा है
रात भर सिकुड़ा हुआ
तन अकड़ता जा रहा है।
सिर व पैरों को मिलाकर
गोल बन सोने लगा,
नींद फिर भी दूर ही थी
क्या करे, रोने लगा।
यूँ तो मौसम सब तरह के
कुछ न कुछ मुश्किल भरे हैं,
ठंड की रातों के पल पल
और भी मुश्किल भरे हैं।
छांव होती गर तुषारापात के
पाले न पड़ता,
काट लेता ठंड के दिन
इस तरह जिंदा न मरता।
पांच रुपये जेब में थे
पेटियां गत्ते की लाया
मानकर डनलप के गद्दे
भूमि पर उनको बिछाया।
क्या कहें ठंडक भी जिद्दी
भेदकर गत्तों का बिस्तर
आ रही थी नोचने तन
बेबस था वह फुटपाथ पर।
—— सतीश चंद्र पाण्डेय
बेहतरीन कविता
बहुत धन्यवाद
बेहतरीन कविता
Thanks
बेहतरीन
धन्यवाद जी
Very nice lines
Thank you
निर्धन की सर्दी का बेहतरीन चित्रण
Bahut bahut dhanyawad
ठंड से बच के निकल जाए, जमाने में किसका मजाल है।
क्या अमीर क्या गरीब सभी को देखिए एक ही हाल है।।
बहुत बहुत धन्यवाद
सोंचनीय रचना
सराहना हेतु साधुवाद