ठंड हो जिस समय जिन्दगी में
कर सकूँ यदि भलाई नहीं,
तो बुराई करूँ क्यों भला
आपको दे सकूँ यदि नहीं कुछ
तो खुटाई करूँ क्यों भला।
हो अगर कोई मुश्किल समय
काम में कुछ नहीं आ सकूँ
तब मुझे हक नहीं है जरा भी
आपका मित्र खुद को कहूँ।
ठंड हो जिस समय जिन्दगी में
उस समय ओढ़ना बन सकूँ,
जब कभी बन्द हो जाये रसना
उस समय बोलना बन सकूँ।
भाव पहचान लूँ नैन के
जिस समय नैन आधे खुले हों,
रोक लूँ सांस उड़ती हुई,
जिस समय होंठ के पट खुले हों।
आपके कष्ट कम कर सकूँ
वक्त पर कुछ मदद कर सकूँ
तब कहूँ मित्र सचमुच का हूँ मैं
सिद्ध मैत्री को जब कर सकूँ।
Wow, very nice, क्या खूब लिखा है सर
वाह सर वाह, बहुत खूब है
बहुत ही सुंदर ढंग से लिखा है सर आपने
“ठंड हो जिस समय जिन्दगी में उस समय ओढ़ना बन सकूँ,
जब कभी बन्द हो जाये रसना उस समय बोलना बन सकूँ।”
मित्रता के बारे में कवि के बहुत ही सुन्दर विचार हैं,किन्तु मेरे विचार हैं कि मित्रता स्वार्थ से परे ही होती है , मित्रता को सिद्ध करना पड़े तो कैसी मित्रता । मित्र तो मित्र के सुख, दुख स्वयं ही समझ लेते हैं। बहुत सुन्दर रचना
अतिसुंदर भाव
सुंदर कल्पना