ठिठुरता जीवन…
ठिठुरता जीवन
कांपता है मन
सर्दियों से डरता है ये मन
चिपक रहा
बेटा जब माँ से
कितना बेबस होगा वह तन
हड्डी-हड्डी कांप रही है
रोम-रोम पिघलाता यौवन
कंबल-चादर
फटी पुरानी
सिर ओढ़े तो
खुल जाता है दूजा अंग
शुक्र मनाऊं
जब आये सूरज
धूप देख खिल जाता जीवन….
निर्धन की सर्दियों को दर्शाती हुई कवि प्रज्ञा जी मार्मिक अभिव्यक्ति
धन्यवाद
अति, अतिसुंदर भाव
धन्यवाद
आपने आखिर वास्तविक जीवन से परिचय करवा ही दिया। बहुत ही सुन्दर रचना प्रस्तुत किया है प्रज्ञा जी।
जी सर, हर कवि की तरह वास्तविकता से परिचय कराना भी मेरा फर्ज है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
धन्यवाद