तमाशा
हम तुम पले – बढ़े अपने ही भारत के गोद में।
फिर क्यों दरार पड़ी है आज अपने ही रिश्ते में।।
देखो कैसे चली आज चारो तरफ नफरत की आँधी।
कैसे क़त्ल पे क़त्ल कर रहे अमानुष मनुष्य के भेष में।।
हम किसी से कम नहीं बस यही घमण्ड है सभी को।
चिराग जलाओ भटक गये है इंसान नफरत के भीड़ में ।।
आज अपने ही घर में आग लगा कर चिल्लाते है ‘बचाओ’।
परेशान हो गए आज हम और तुम अपने ही समाज में ।
वाह
धन्यवाद।
आजकल जो घटित हो रहा है उसका यथार्थ चित्रण
बहुत ही सराहनीय
धन्यवाद सर जी।
Very nice
शुक्रिया गीता जी।
Waah
धन्यवाद नेहा जी।
देश के भीतर अशान्ति फैलाने वाले, हत्या, डकैती, दुराचार, आतंक फैलाने वाले तत्वों द्वारा की जा रही हरकतों पर चिंता व्यक्त की गई है। वास्तविकता का चित्रण है। ‘कैसे क़त्ल पे क़त्ल कर रहे अमानुष मनुष्य के भेष में’ अनुप्रास से अलंकृत पंक्तियाँ हैं।
सुन्दर
अशांति को प्रकट करती हुई रचना