तुम

तुम कुछ यूँ ज़रूरी बन गए कि तुम्हे भुला ना सकी,
इस बात को किसी और को बता ना सकी,
इस दिल का भोज कभी हटा ना सकी,
तुम्हारी यादों से दूर जा ना सकी,
बोलने की हिम्मत कभी जता ना सकी,
साँसों में तुम्हारी अपने को बसा ना सकी,
ख्वाबों को हकीकत में सजा ना सकी,
तुम्हे अपना बना ना सकी ।

तुम कुछ यूँ ज़रूरी बन गए कि तुम्हारी वो कविता भुला ना सकी,
तुम्हारे लिखे खत जला ना सकी,
आँसुओं को अपने अंदर समा ना सकी,
तुम्हारे दिल को अपने लिए मना ना सकी,
अपनी मोहब्बत तुम्पर फना करना सकी,
झूठी हँसी होठों पर ला ना सकी,
तुम्हे अपना बना ना सकी ।

तुम कुछ यूँ ज़रूरी बन गए कि तुम्हारी तस्वीर आँखों से हटाने की हिमाकत सी ना हुई,
उन यादों को चाहकर भी भुलाने की नजाकत सी ना हुई,
वक़्त को उस पल में दुबारा ले जा ने की कोशिश सी ना हुई,
इन लम्हों को यहीं थमा ने की इच्छा मुकम्मल सी ना हुई,
बरसती बूंदों को वहीं रोक ने की हिम्मत सी ना हुई,
तुम्हारी नज़र को अपने पर टिका ने की बात सी ना हुई,
लफ़्ज़ों को ज़ुबाँ पर फ़िर ला ना पाई,
तुम्हे अपना बनाने की ख्वाहिश पूरी सी ना हुई।

काश उस वक़्त हिम्मत कर तुम्हे सब कुछ बता दिया होता,
तो फ़िर ये लिखने का मौका ना दिया होता,
जीवन का रंग रूप अबसे कुछ अलग होता,
तुम मेरे होते, मैं तुम्हारी होती और ये रिश्ता एक होता ।

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