तृप्ति

तृप्ति
——
वाग्देवी सरस्वती लड़खड़ाती जब
निकलती हैं पहली बार बोलते किसी बालक के स्वर से…
तो रसिक की तरह निहाल हो जाते हैं हम सब।
वह पहला मधुर स्वर सुनने को लालायित, हमारे कान
और नन्हे बालक के
सुकोमल अधरों पर फूटते स्वर…
सूर्य की किरणों के सामान उल्लासित करते हैं सभी को।
उस तुतलाती भाषा में ढूंढ लेते हैं स्वयं ही हम, खुद के लिए बोला जाने वाला संबोधन
और चहक कर चूम लेते हैं पुष्प के सामान कोमल अधर उस बालक के।

आत्मा को चंदन के समान शीतलता प्रदान करती है यह मधुर स्वर लहरियां,
सुगंधित कर देती हैं अंतरात्मा को।
भीनी सुगंध से तृप्त होकर हम फिर झौक देते हैं खुद को जीवन के दावानल में।

फिर सुकून पाने के लिए हाथ बांधे खड़े हो जाते हैं उस बालक के समक्ष,
फिर से प्रेम सुधा पाने के लिए
विलग है ये मनभावन आलौकिक अहम से‌ परे भावों की प्रबलता….
जो भगवान ने बालक के रूप में बिना किसी भेदभाव के सभी प्राणियों को प्रदान की है।
निमिषा सिंघल

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