दुनियादारी
पियक्कड़ों के शहर में शरबत ढूंढ रहा हूं
खारे सागरों से मीठा पानी पुकारता रहा हूं
अपने हाथों से अंजुली भर के पानी पिलाती हो मुझे
मैं वही छोटा सा तालाब अपने घर रोज चाहता हूं
जो सीखा दुनियां से वही आजमा रहा हूं
इन आँख के अंधों के शहर से कहीं दूर
एक गांव है अक्ल के अंधों का
वहीं कुछ सपने थोक के भाव बेच रहा हूं
एक वक्त था कि वक्त भी नहीं था खुद के लिए
आज बेवक्त यूँ ही जिए जा रहा हूं
थक गया इन घड़ियों की दुकानों में ढूंढते ढूंढते
एक अरसे से अच्छा सा वक्त ढूंढ रहा हूं ।
ATI Uttam Srujana