पत्थर सा दिल

तो अब हम नहीं मिलेंगे?
शायद उम्मीद भी नहीं ही थी
पर फिर भी, इस खयाल से
दिल पत्थर सा महसूस होता है
शायद उस पत्थर जैसा,
जो रेल की पटरियों के बीच पड़े रहते हैं
जो जानते हैं
ये पटरियां, खत्म हो जाती है पर मिलती नहीं,
फिर भी जब दूर देखते हैं
तो बस पटरियां ही नहीं, सारा जहां मिलता सा दिखाई देता है
ग़ालिबन इस ही लिए यूं पड़े हैं;
या शायद, उस पत्थर सा
जो कई सालों से उस झरने के नीचे पड़ा है
मानो तपस्या सी कर रहा हो
उसके बाल झड़ चुके है, दांत गिर चुके हैं
नाखून टूट गए हैं, खाल भी सफेद पड़ गई है
फिर भी पत्थर सा वहीं पड़ा है
क्या सोचता है?
की वो धीमा सा पानी
कभी उसके नुकीले कोनों को चिकना कर देगा?
या उसकी ज़िद देख, पानी नीचे ही नहीं गिरेगा?
या शायद कुछ सोच ही तो नहीं सकता;
खैर उस पत्थर की तरह भी ही सकता है
जो एक पहाड़ का हिस्सा है
जिसे कह सकते है, की धरती पर पड़ा है
जिसे काट कर लोगो ने रास्ते बना लिए है
पर अभिमान से, या धैर्य से वो वहीं का वहीं पड़ा है
वो सोचता तो खैर क्या ही होगा;
या वो मिट्टी का डाला तो नहीं?
जिसे सब पत्थर समझ बैठे हैं?

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