पहला कदम
जब पहला कदम बढ़ाना था
कोई उगली पकड़ाया था
जब घुटनों मे मेरी चोट लगी
कोई मलहम लगवाया था
उस चोट से आगे फिर मेरा कदमो का सफर जब बढ़ता है
पेनसिल के युग मे जाकर करके वो सीधी मेड़ पकड़ता है.
तब तक सब कुछ ही अच्छा था
निर्मल मनो का संगम था
और मेरा मन भी निर्मल था
ना द्वेष कोई संग करता था
ना किसी से द्वेष मै करता था
जीवन के इस काल चक्र में रुकना उस वर्ग मे मुस्किल था,
अनजाने और जान के भी इस युग से आगे बढ़ना था
घटित हुआ वही तंग इतिहास मेरे भी मस्तिष्क मे
पड़ गया फिर मै भी देखो उसी द्वेष रँग की मुस्किल मे
फिर कहा मिलेगा मार्ग मुझे इस भँवर जाल से मुक्ति का?
यह प्रश्न बड़ा ही सुंदर था उत्तर उससे भी सुंदर था
की
” क्या फर्क पड़ता है किसी के कहने या मानने से
मेरी तो जंग होनी चाहिए मेरे आइने से ”
Bahut achey bhai
Good