पूस की रात को

आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को ?
झकझोर रहा है मेरे दिल की जज़्बात को ।
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को?
घनघोर अंधेरा छाया है
देख मेरा मन घबराया है
सनसन करती सर्द हवाएँ कपकपा रही मेरे गात को।
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को ?
टाट पुराने को लपेटा
खेतों में मंगरु है लेटा
सर्दी और चिंता के कारण नींद कहाँ उस गात को?
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को ?
फसल बचाने को पशुओं से
जाग रहा है खेत में।
डर आशंका और ख़ुशी के
भाव जग रहे हैं नेत में।।
भगवान बचाए रखना केवल इस एक रात को।
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को?
शबनम की बूंद बदल गई
कैसे एक बारिश में।
टप-टप बूंदों के संग-संग
आए ओले रंजिश में।।
सह नहीं पाई फसल मंगरु के एक हीं आघात को।
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को?
मौसम से लड़ -लड़ कर हालात से लड़ नहीं पाया।
देख टूटते सपने को “विनयचंद ” सह नहीं पाया।।
एक किसान की दुखद कहानी कैसे कहूँ इस बात को?
आखिर क्या कहूँ इस पूस की रात को?

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