पूस की रात

पूस की रात मे
दुनिया देख रही थी सपने
आलस फैला था चहु ओर
रात भी लगी थी ऊँघने.

मैंने छत्त से देखा
बतखों के झुण्ड को तलाब मे
तीर सी ठण्डी हवा चलने लगी थी
रात के आखरी पहर मे.

मछलिया खूब उछल रही थी
तेर रही थी इधर -उधर
सोचा हाथ लगाउ उनको
पर ना जाने छुप गई किधर.

तभी कुछ शोर सुनाई दिया आसमान मे
बागुले उड़ रहे थे एक पंक्ति मे
जैसे वो सब आजाद है
मेने भी खुद को आजाद महसूस किया उनकी
स्वछंद संगती मे.
….. राम नरेश…..

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