प्रश्नों का जमावड़ा
दुनिया की अंधाधुंध गाड़ियों की भीड़ में
एक नन्हीं सी परी को खड़ा जो देखा
पाँव से रुक गए देख कर उसको
फिर मन में प्रश्नों का जमावड़ा देखा
कैसा ये जीवन कैसी ये पीड़ा
फिर सपनों का महल संजोते देखा
मानो भूख लगी हो खुद को भी
पर अपनी भूख को दबाते देखा
हाथ में पत्तल , न ही पैरों में चप्पल
इशारे में उंगली उठाये हुए देखा
एक किनारे खड़ी थी मासूम
मासूमियत को मैंने गौर से देखा
नज़र पड़ी फिर भाई पर उसके
इशारे से भाई को संभालते देखा
कच्ची उम्र में ही पापा की परी में
बड़ों का सा भवसागर देखा
विद्यालयी शिक्षा से तो रही वंचित
जिंदगी की परीक्षा में खड़ा उसको देखा
नम हो गईं आँखे मेरी उस वक़्त
जब सब नज़राना अपनी आंखों से देखा
गर हो गरीबी घर आंगन में कली के
तो खिलौने नहीं जिम्मेदारी का बोझ भी देखा
हो जाते हैं बड़े समय से पहले
समझदारी की उम्र का कोई पैमाना न देखा।।
Awesome writing. Keep it up Neha ji
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