‘प्रेम के उपनिषद्’
थक गई हूँ अब रोते-रोते,
तन्हा राहों पर चलते-चलते
इन बिखरी साँसों की
अरज बस है यही तुमसे
मिलन जब भी हमारा हो
ना कोई गिला-शिकवा हो
‘प्रेम के उपनिषद्’ पर बस
नाम अंकित तुम्हारा हो
बिखर कर टूटने से पहले
जब मिलना कभी हमसे,
मुझी में डूब जाना तुम,
फकत बाँहों में भरकर के…
सुन्दर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
वाह वाह क्या बात है प्रज्ञा जी बहुत हीं सुन्दर प्रस्तुति
धन्यवाद
वाह। आपकी कविता प्रेम रस में डूबा हुआ है। यही तो सच्चे 💕 प्रेम के प्रतीक है।
Thanks sir
अत्यंत उम्दा प्रस्तुति
धन्यवाद