फिर से..
वह पन्नों को पलटाके फिर एक बार देखा,
जो सच्चाई से वाक़िफ न हुई थी।
अश्क के उन अक्षरों को पढ़ा,
जिन्हें तस्सली फिकी मुस्कान से मिली थी।
कसमों से भरी दास्तां बयां करती उस किताब से, मैंने बहुत कुछ सीखा…
फिर भी नाज़ुक रिश्तों के डोर को बचाते हुए,बड़ी करीब से उन्हें टुटते देखा!
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