बाट
राधा ने सिर पर
धर मटकी
बैठी छांव तले
वट की
जोह रही है
श्याम को अखियां
दिन बीता अब
बीती रतियां
श्याम बिना निष्प्राण
है गैया
देख रही सुध खोकर
मैया
क्यों निष्ठुर तू
बना कन्हाई
क्या तनिक भी
मेरी याद न आई।
वीरेंद्र सेन प्रयागराज
बेहद रोचक व शानदार शिल्प
प्रेम की विरह का अनूठा रसपान कराती हुई रचना
आभार
कान्हा जी को याद करती हुई, राधा जी के मनोभावों को खूबसूरती से दर्शाती हुई अति सुंदर एवम् रोचक कविता
आपका आभार
आभार
अतिसुंदर