बात ही कुछ और है
नदियों में गंगा की, ध्वज में तिरंगा की ,
बात ही कुछ और है फलों में आम की, देवताओं में श्याम की ,
बात ही कुछ और है शादी में कार्ट की, फेक्लटी में आर्ट की ,
बात ही कुछ और है जिन्दगी में नॉलेज की, पिलानी में राकेश कॉलेज की ,
बात ही कुछ और है अनाजों में बाजरे की, पहनावे में घाघरे की ,
बात ही कुछ और है पक्षियों में मोर की , रात के अंधेरे में चोर की,
बात ही कुछ और है पशुओं में गाय की, सरकारी नौकरी में ऊपरी आय की,
बात ही कुछ और है रत्नों में हीरे की, सलाद में खीरे की ,
बात ही कुछ और है जिन्दगी में सगाई की ,सर्दी में रजाई की ,
बात ही कुछ और है
“संदीप काला “
बहुत सुंदर, भाव और शिल्प का उम्दा तालमेल
कविता की समीक्षा करने के लिए धन्यवाद सर जी
बहुत खूब,सुन्दर रचना
Thank you very much
अति उत्तम
Thank you very much
बहुत खूब
Thank you very much Sir ji