बेटी प्रज्ञा
रोहन काका फोर्थ ग्रेड की नौकरी करके अपने दो बेटे प्रदीप ,प्रताप एवं बेटी प्रज्ञा को पढ़ाया लिखाया। प्रज्ञा को ग्रैजुएट करने के बाद ही हाथ पीले कर दिए। प्रदीप व प्रताप को यू पी सी की तैयारी भी करवाए। जल्द ही उन दोनों को अच्छी नौकरी भी मिल गई और रोहन काका को रीटायरमेंट।माँ गायत्री हमेशा चूल्हा चौका में ही व्यस्त रहती थी। रोहन काका दोनों बेटों की शादी भी धूमधाम से कर दिया। ज़माने के अनुसार दोनों बहूओं को प्रदीप व
प्रताप के यहाँ मुंबई शहर भेज दिया। दोनों पति पत्नी के खर्च हर महीने आने भी लगा।समय यों ही गुज़रता गया।शहर में जा कर दोनों बहूएं अपने अपने पति पर धीरे धीरे हावी हो गई। शहर के चमक धमक व दौलत में वे इतने लीन हो गये कि, वे सभी यह भी भूल गये कि घर में बूढ़े माँ बाप भी है। दिन गुजर गए महीने गुजर गए साल गुजर गए। मगर किसी ने माँ बाप के हाल तक जानने का कभी प्रयास तक नहीं किया। मगर, हाँ बेटी प्रज्ञा व दामाद अभिषेक कभी कभार आ जाया करता था। माँ बाप के प्रति भाइयों की रवैया प्रज्ञा को अच्छा नहीं लगता था। रोहन काका के पेंशन से ही घर का खर्च चलने लगा। अचानक एक दिन शाम को रोहन काका के सिन्हें में तेज दर्द हुआ। वह विस्तर पर ऐसे गिरे कि फिर वह उठ नहीं पाए। माँ गायत्री चीख चीख कर रोने लगी। मोहल्ले के सारे लोग इकट्ठे हो गए। उसी समय बेटी प्रज्ञा को फोन से सूचित किया गया। फिर प्रदीप, प्रताप को भी सूचित किया गया। सभी सुबह तक पहुंच गये। बड़े ही दु:ख के साथ रोहन काका को अंतिम संस्कार कर दिया गया। हिन्दू रीति रिवाज से क्रिया क्रम भी हो गया। प्रज्ञा अपने दोनों भाइयों के बीच माँ को रखने का प्रस्ताव रखी। मगर किसी ने माँ को अपने पास रखना नहीं चाह रहा था। बेचारी बूढ़ी माँ कभी बड़े बेटे पर देखती थी तो कभी छोटे बेटे पर देखती थी। मगर किसी बेटे का दिल ,माँ के प्रति नहीं पसीजा।माँ मुंह पर आंचल रख कर रोने लगी। वह सोचने लगी कि जिस संतान को हमने नौ महीने कोख में रख कर हर तरह के दर्द सहती रही। आज वही बेटा अपनी माँ की दर्द तक बांटने को तैयार नहीं है। कुछ क्षण पश्चात गायत्री ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। बेटी प्रज्ञा अपने पति अभिषेक से इजाज़त ले कर माँ को हमेशा के लिए अपने पास(ससुराल) में रखने का फैसला अपने भाइयों को सुना दिया। गायत्री अपनी बेटी के यहाँ नहीं जाना चाहती थी । वह समाज के ताने से बचना चाहती थी । अभिषेक सास माँ के पांव छू कर कहता है कि – मेरी माँ तो बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गई। मै उनको कभी देखा ही नहीं। यदि आप मेरे पास रहेंगी तो मैं समझूंगा कि मैने पुनः अपनी माँ को पा लिया। माँ गायत्री दामाद जी के यह वचन सुन कर रोने लगी। गायत्री आँसू पोछती हुई कही कि पेंशन के पैसे हर महीने जो मुझे मिल रहे है वह आपको लेने पड़ेंगे। उपर वाले को भी तो मुंह दिखाना है। अभिषेक – जैसी आपकी मर्जी। प्रज्ञा अपनी माँ को लेकर हमेशा के लिए अभिषेक के संग अपने घर चली जाती है।प्रदीप व प्रताप प्रज्ञा को देखता ही रह जाता है।
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Pt, vinay shastri 'vinaychand' - December 3, 2020, 9:09 pm
अतिसुंदर
मामिक
प्रेरक प्रसंग
Praduman Amit - December 4, 2020, 2:21 am
शुक्रिया पंडित जी।
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - December 3, 2020, 9:11 pm
मेरे ख्याल से इसका शीर्षक ‘दामाद’ होना चाहिए था।
Praduman Amit - December 4, 2020, 2:19 am
मेरा भी यही ख्याल था पंडित जी। लेकिन इस कहानी में नारी प्रधान को प्रथम स्थान दिया है मैने । कहानी की शुरुआत पुरुष से होती है और अंत नारी ही करती हैं।अगर इस कहानी में पुरुष के स्थान मिलता तो उधर माँ की दर्द के भाव कम जाता। कहानी के अंत हमे नारी से ही करनी थी। सुंदर समीक्षा के लिए धन्यवाद।
Pt, vinay shastri 'vinaychand' - December 4, 2020, 8:02 am
बहुत खूब सुंदर भाव
Virendra sen - December 3, 2020, 9:31 pm
दिल को छूने वाली अभिव्यक्ति
Praduman Amit - December 4, 2020, 2:20 am
धन्यवाद सर।
Satish Pandey - December 4, 2020, 7:51 am
कहानीकार अमित जी की बहुत ही सुन्दर रचना, संवेदना और शिल्प से परिपूर्ण रचना
Praduman Amit - December 4, 2020, 5:21 pm
Thanks Payday jee
Piyush Joshi - December 4, 2020, 8:04 am
अति सुन्दर
Praduman Amit - December 4, 2020, 5:23 pm
Thanks Joshi jee
Pragya Shukla - December 8, 2020, 12:48 am
आपकी कहानी का शीर्षक
अति उत्तम है उसमें कोई दोष ही नहीं है…
क्योंकि आपकी कहानी प्रज्ञा के ही इर्दगिर्द घूमती है एवं वही कहानी की नायिका व उत्तम चरित्र है जो समाज को अच्छी सोंच प्रदान करती है जिसका आचरण अनुकरण योग्य है..
अभिषेक का पूरी कहानी में गौण स्थान है परंतु वह मानवता दिखाता है और अनुकरण योग्य है…
Praduman Amit - December 18, 2020, 7:27 pm
मैने अपनी कहानी के शीर्षक प्रज्ञा बहुत ही सोच समझ कर रखा है क्योंकि यह कहानी नारी प्रधान है पहले यह ख्याल आया कि ममता रखें। फिर ऐसा लगा कि यह शीर्षक पुरानी हो गयी है। इस शीर्षक पर कई कहानीकार अपनी रचनाएं लिख चूके है। इसलिए मैने प अक्षर से शीर्षक खोज रहा था। अचानक ज़ुबान पर “प्रज्ञा”शब्द आ गया।