भले ही सो रहा हूँ मैं
भले ही सो रहा हूँ मैं
थका-माँदा यहाँ
फुटपाथ में
मगर चलती सड़क है
रुकती है बमुश्किल
एकाध घंटा रात में।
उसी में नींद लेता हूँ
उसी में स्वप्न आते हैं,
कभी जब राहगीरों के
बदन पर पैर पड़ते हैं
अचानक स्वप्न थे
जो नींद में
वो टूट जाते हैं।
नया हूँ इस शहर में
भय से आँसू छूट जाते हैं,
यहां क्यों लेटता है कह
सिपाही रूठ जाते हैं।
अंधेरी जगह जाऊँ कहीं
तो श्वान होते हैं,
हमारी तरह उनके भी कुछ
गुमान होते हैं।
मुझे अनुभव नहीं है
इस तरह सड़कों में सोने का,
मगर असहाय हूँ
घर से निकाला हूँ
कमजोर हूँ मैं वृद्ध हूँ
अब तो दिवाला हूँ।
स्थान मुझको चाहिए
थोड़ा सा रोने का।
दो-तीन घंटे लेट कर
थोड़ा सा सोने का।
सुबह फिर काम खोजूंगा
उदर की पूर्ति करने को।
जगूं या जग न पाऊँ कल सुबह
सोचा नहीं मैंने,
मगर इस वक्त आधी रात है
सोया हूँ जगने को।
मगर असहाय हूँ
घर से निकाला हूँ
कमजोर हूँ मैं वृद्ध हूँ
अब तो दिवाला हूँ।
__________ असहाय वृद्ध व्यक्ति का बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हुए कवि सतीश जी की बेहद संजीदा रचना, लाजवाब अभिव्यक्ति, उम्दा लेखन
बहुत गंभीर रचना