मजदूर हूं मैं !

मजदूर हूं मैं

जरूरत तो पड़ेगी मेरी ,
क्योंकि मैं निर्माता हूं ।
माना झोली खाली है मेरी,
मजदूरी करके खाता हूं।
बहा कर खून-पसीना ;
खुशहाल देश बनाता हूं।

पूछो उन दीवारों से,
भवनों से, मीनारों से,
खेतों से,खलीहानों से ,
अनाज के एक-एक दानों से,
क्या वे नहीं जानते  ? मुझको!

ईटों से, पत्थरों से,
रेत के हर कण- कण से ,
पूछो तो सही वे जानते हैं !
मेहनत को मेरी पहचानते हैं ।

पर आज बड़ा मजबूर हूं मैं,
दाने -दाने से दूर हूं मैं ।
भूखी आत्मा ; सुखा शरीर
भारत देश का मजदूर हूं मैं।

मजदूर हूं मैं ,वही;
तुम्हारे होटल बनाने वाला!
तुम्हारी फैक्ट्रीयां चलाने वाला!

मजदूर हूं मैं ,
तुम्हारी सफाई करने वाला!
तुम्हारा खाना पकाने वाला!

मजदूर हूं ,
पसीना बहाने वाला!
आंसू की घूंट पीने वाला!

मजदूर हूं,
हजारों मील चलने वाला!
रेलगाड़ी से मरने वाला!
मजबूर हूं,
थोड़े में सब्र करने वाला।
भूख से लड़ाई लड़ने वाला!

याद है मुझे वह कहावत
करे कोई भरे कोई!
बड़े लोगों की बीमारी, साहब!
पड़ रही है हम पर भारी।

पर फिर भी देश का कोहिनूर हूं मैं
जरूरत तो फिर भी पड़ती है मेरी
दिहाड़ी वाला मजदूर हूं मैं।
                               
                             — मोहन सिंह( मानुष)

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Responses

  1. अगर आपका मतलब गहराई से है ( गहड़ाई)
    तो उसके लिए आपको कविता में अपने आप को मज़दूर की तरह समझना पड़ेगा ,फिर देखो कैसे नहीं आती गहराई!
    बाकी समीक्षा के बहुत बहुत आभार!

  2. बेहद सुन्दर काव्य रचना, जैसा कि विनय जी ने कहा है, यथार्थ का सटीक चित्रण

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