मृगतृष्णा

रेत सी है अपनी ज़िन्दगी
रेगिस्तान है ये दुनिया,
रेत सी ढलती मचलती ज़िन्दगी
कभी कुछ पैरों के निशान बनाती
और फिर उसे स्वयं ही मिटा देती,
कांटों को आसानी से पनाह देती
फूलों को ये रेत हमेशा नकार देती,
जो रह सकता है प्यासा उसे रखती,
बाकियों को मृगतृष्णा में उलझा देती।
दूर तक भी कोई नहीं नजर आता
रेत ही रेत में सब ओझल हो जाता,
प्यास से जब मन बावला होता है,
हर मृगतृष्णा उसे अपना पराव लगता है,
और एक कोने से दूसरे कोने भागते हुए
रेत में ही रेत दफन हो जाता है,
रेगिस्तान राज यूं ही चलता है
हर रोज़ कई कहानियों को रेत में कैद कर
अपने राज्य की शान बनाए रखता है।
©अनुपम मिश्र

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Responses

  1. कवि अनुपम जी की यह कविता जिंदगी को रेत का उपमान देकर चित्रात्मकता का सुंदर समावेश कर रही है। पाठक के मन में सहज की रेत में बन रहे पैरों के निशान चित्र बनकर उभर सकेंगे। फिर चलती हवा से वही निशान मिटने लगते हैं। यह कविता रेत को जीवन से जोड़ने का दुरूह कार्य है। “मृगतृष्णा उसे अपना पराव लगता है,” में दार्शनिकता की झलक भी है। सरल और सहज भाषा का प्रयोग है, “हर रोज़ कई कहानियों को रेत में कैद कर” में अनुप्रास का अलंकरण सुन्दर का को बढ़ा रहा है। बहुत खूब कविता

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