मेरा आईना…!!
मैंने गुस्से से उसे देखा
उसने भी गुस्से से देखा
मैंने आँखें दिखाईं
वो भी आँखें दिखाने लगा
मैं तंग आकर हँसने लगी
तो वह भी खिलखिला उठा
मैं मुस्कुराई वह मुस्कुराया
मैं इतरायी वह शर्माया
मैं रो पड़ी जब कभी
वह भी फूट-फूटकर रोया
मेरी तरह वह भी
जाने कितनी रातें जगा
ना सोया
मेरे जीवन वो अभिन्न हिस्सा है
सब झूठे हैं एक वह ही
सच्चा है
मेरे सजने पर सबसे पहले
वही मुझे देखता है
मेरी सभी कमियों को
बिना हिचक बता देता है
मेरा दोस्त है मेरे जीवन का
हिस्सा है…
मेरा आईना…. !!
बहुत खूब प्रज्ञा ,अगर शीर्षक “मेरा आइना” ना रखती तो कुछ और ही समझ में आता, बहुत सुंदर कविता है ,सुंदर शिल्प । आइने के बारे में इतना सुंदर वर्णन ,बहुत ही शानदार प्रस्तुतीकरण
धन्यवाद दी पहले शीर्षक कुछ और रखना चाहती थी ताकि सस्पेंस बना रहे पर उम्दा शीर्षक ना मिलने की वजह से सोंचा यही रखूं और सस्पेंस खत्म कर दूं
सुन्दर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
Atisunder kavita
Thanks
ओह…
फिर तो मेरी रचना सार्थक हुई