मैं मेरी भाभी और वो…!!
आज बाजार में
तुम्हें अचानक देखा !
मानो कोई सपना देखा
पता नहीं किन खयालों में खोई थी
कल रात जरा देर से सोई थी
मन ही मन सोंच रही थी
काश! तुम्हारे साथ बाजार आती
तुम्हारी बाइक की बैक सीट पर
बैठकर इठलाती…
तुम जो भी पसंद करते खरीद लेती
हाँ ! पर पैसे मैं देती..
यही सोंचते हुए चौराहा
पार कर रही थी
कि अचानक सामने तुम आ गये!
रोंकना चाहती थी तुम्हें
छूना चाहती थी तुम्हे
करना चाहती थी बातें ढेर सारी
पर बोली तक नहीं !
साथ में भाभी जो थीं हमारी !!
अरे वाह! क्या बात है
प्रज्ञा जी सुंदर शिल्प
एक-एक पंक्ति में जिज्ञासा भरी हुई है
जितनी तारीफ करुं कम ही है
अतिसुंदर