रंग नही हैं अब क्या जमाने में
रंग नही हैं अब क्या जमाने में
कि लोग बेरंग हो गये जहां में
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हाँ रंग ही नही, सब कुछ है जहां में
फिर क्यूँ लोग भटक रहे है, मन के अँधियारों में
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अथाह रंग है नरों के जीवन में
फिर क्यूँ बेरंग रिश्ते है मानवों के विचारों में
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रंग तो खेल ही लेंगे हम रंगों के मौषम में
लेकिन मैं हर पल खेलता रंग खूद के संग में
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त्योहार है यह रंग का
या कहूँ मैं यह मौषम है बहार बसंत का
यह कुछ भी नहीं है,
यह त्योहार है भक्त प्रहलाद का ।।
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3:52 AM 3/25/2021
जय श्री सीताराम
खूद से बात करना, खूद से प्यार करना है ।।
— विकास कुमार
वाह
रंग नही हैं अब क्या जमाने में
कि लोग बेरंग हो गये जहां में
_______ समसामयिक चित्रण प्रस्तुत करती हुई कवि विकास जी की सुंदर रचना, उत्तम अभिव्यक्ति
सही है
कुछ बे रंग हो गये
कुछ रंगीले हो गये
उड़ा है रंग चेहरों का
झूठ कपट की दुनियां का
रंग तो खेल ही लेंगे हम रंगों के मौषम में
लेकिन मैं हर पल खेलता रंग खूद के संग में
——- लाजवाब प्रस्तुति
आप की कविता पाठक को विचार करने पर मजबूर कर देती हैं
उच्च स्तरीय लेखन, कला पक्ष तथा भाव पक्ष दोनों मजबूत है।।