लम्हे..
ज़िन्दगी से कुछ लम्हे,
बचाती रही
एक बटुवे में उन्हें,
सजाती रही
सोचा था कि फुरसत से
करूंगी खर्च,
ज़िन्दगी में
इसीलिए बचाती रही,
कुछ लम्हे
कुछ अपने लिए,
कुछ अपने अपनों के लिए
फ़िर ज़िन्दगी बीतनी थी,
बीत गई…
एक दिन सोचा,बटुआ खोलूं
बटुआ खोला….
एक भी लम्हा ना मिला,
कहां गए, मेरे सब लम्हे
कोई जवाब भी नहीं मिला
फ़िर सोचा, चलो आज थोड़ी
सी फुरसत है,
मिलती हूं खुद से ही..
जा के आइने के सामने खड़ी हो गई
बालों में कुछ चांदी सी पड़ी थी,
वो कुछ-कुछ मेरे जैसी ही लगी
वो आइने में,पता नहीं कौन खड़ी थी..
*****✍️गीता
बहुत धांसू कविता बोले तो दमदार…
इस धांसू समीक्षा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद प्रज्ञा।
बोले तो Thank you hai ji.
Hahaha..
आता है नहीं हमे तारीफ करना तो क्या करें देशी भाषा में कर लेते हैं
बहुत बढ़िया है प्रज्ञा दिल खुश कर दिया,कुछ दुखी सा था आज
बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं सैनोरीटा..
😊
कवि गीता जी की एक लाजवाब अभिव्यक्ति है यह।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका सतीश जी, सादर आभार 🙏
बहुत खूब
बहुत बहुत धन्यवाद सर सादर आभार 🙏