वन-सम्पदा
वृक्षों को काट-काट कर,
इति करे सब वन
प्रकृति का सर्वनाश किया है,
कमाने को केवल कुछ धन।
दोहन कर-कर प्रकृति का भी,
चैन मनुज को ना आया
पशु , पक्षियों को बेघर किया है,
लालच वृद्धि करता प्रति क्षण।
प्रतिकार प्रकृति भी लेती है ,
फ़िर शुद्ध पवन कम देती है
फ़िर भी मानव को चैन नहीं,
काट रहा है फिर भी वन
हे मनुज तेरी ही हानि हो रही,
लगा लगाम लालच पर अपने
अब भी करदे ये सब बंद ,
अब भी करदे ये सब बंद ।।
*****✍️गीता*****
वाह वाह, प्रकृति पर बहुत ही उम्दा रचना
बहुत बहुत धन्यवाद सर , सादर आभार 🙏
अति सुंदर
Thank you Rishi ji
प्रकृति प्रेम की बहुत सुंदर कविता। वास्तव में मनुष्य ने प्रकृति का अनियंत्रित दोहन कर प्रकृति को रुष्ठ किया है। आपने सच्ची और यथार्थ प्रस्तुति दी है गीता जी।
हे मनुज तेरी ही हानि हो रही,
लगा लगाम लालच पर अपने।
इन पंक्तियों में उपस्थित अनुप्रासिक छटा काव्यगत शिल्प में चार चांद लगा रही है, वाह।
आपकी बेहतरीन समीक्षा से मन प्रसन्न हो गया है सतीश जी । कविता के शिल्प की इतनी सुंदर व्याख्या की है , ये मेरे लेखन के लिए बहुत ही उत्साह वर्धक और प्रेरक है । बहुत बहुत धन्यवाद सर🙏
बहुत खूब प्रकृति प्रेम की सुंदर रचना
Thanks Allot Piyush ji.
वाह बहुत खूब
आपका बहुत शुक्रिया जोशी जी🙏
सुंदर काव्य रचना
बहुत बहुत धन्यवाद वसुंधरा जी
अतिसुंदर
बहुत बहुत धन्यवाद आपका भाई जी 🙏 सादर आभार