विधवा स्त्री: “रूठ गई जबसे है चूड़ी
कैसा जीवन
हाय ! तुम्हारा
ना चूड़ी ना
गजरा डाला
पैरों की पायल भी रूठी
घुंघरू टूटा,
चूड़ी टूटी
जो देखे वो
कहे अभागन
जब चले गये हैं साजन !
तुझ पर कितने
अत्याचार हुए
कटु वचनों के बाणों के
बौछार हुए
जीवित ही तुझको
सबने मार दिया
तेरे पति के मरने पर
तुझको ही दोष दिया
जो स्त्रियां बैठ बतियाती थीं
संग हँसती थीं,
मुसकाती थीं
अब माने तुझको अपशकुनी
रूठ गई जबसे है चूड़ी…!!
ओह! समाज की दकियानूसी सोच को दर्शाती हुई कवि प्रज्ञा जी की बेहद मार्मिक रचना ।
धन्यवाद गीता जी,
आपसे यही उम्मीद थी…
सच कहा स्त्री को पुराणों तथा हिन्दू रिवाजों में कुछ इसी प्रकार दर्शाया गया है और लोग उसका अनुसरण करते हैं जो बहुत ही निंदनीय है
बिल्कुल प्रज्ञा जी ।कोई स्त्री विधवा हो कर वैसे ही दुखी होती है उस पर ये समाज…..। ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए वो भी एक इंसान है उसके दुख में दुख दिखाओ हो सके तो उसका दुख कम करने की कोशिश करो ना कि उस पर आरोप लगाओ जो गलती उसने कभी की ही नहीं ।
जी बिल्कुल गीता दी..
समझने के लिए धन्यवाद
सुंदर भाव
धन्यवाद वसुंधरा जी
आया करिये सावन पर और कुछ विचार प्रस्तुत किया कीजिए हमें अच्छा लगेगा
Very good👍👍👍
धन्यवाद
अतिसुंदर
धन्यवाद
बहुत ही सुंदर पंक्तियां लिखी हैं
धन्यवाद