वृक्ष कहे रोकर पृथ्वी से….!
वृक्ष कहे रोकर पृथ्वी से
हे वसुधा ! मैं हूँ भयभीत
बोया मुझको प्रेम से किसी ने
रोपा और दिया आशीष
पर जाने कब चले कटारी
मेरे चौंड़े वक्षस्थल पर
आज मैं देता हूँ छाया सबको
और देता हूँ मीठे फल
जाने कब कट जाऊं मैं भी
अपने साथी वृक्षों सम
रोंक सकूं मैं मानुष को
मुझमें ना है इतना दमखम
जला लकड़ियां मेरी जाने
कितने घरों में बने भोजन
मुझको ना काटो हे मानुष !
देता हूँ मैं तुमको आक्सीजन…
शुद्ध करूं मैं वायु तुम्हारी
और मिटाऊं भूख तुम्हारी
लेता ना बदले में कुछ भी
बस केवल बक्श दो जान हमारी….
पर्यावरण के प्रति व पेड़ पौधे की बचाव के लिए आपकी रचना अति उत्तम व प्रेरणादायक है।
धन्यवाद आपका सराहना के लिए
बहुत खूब प्रकृति प्रेम की सुन्दर रचना
धन्यवाद गीता जी आपका
वृक्ष की वेदना और औचित्य का खूबसूरत चित्रण किया है आपने।
धन्यवाद समीक्षा हेतु आपका सर
अतिसुंदर भाव
Thanks