वैराग-चित् संपदा
वैराग-चित् संपदा
कर पाए जब तूं दिल से
प्रति सुख और दुख के, एक समान उपेक्षा
कर पाए जब अंतर मन से
विभिन भ्रांतियों पर, चिरकाल विजय
कर पाए जब यह अनुभूति
ना इधर कोई राग, ना उधर कोई राग
कर पाए जब अपने अन्दर
हो कर उसकी लौ में रोशन, मातृ सत्य का दर्शन
कर पाए निर्लेप-निर्मल चित्
जिसमे तूं नही, मैं नही, कोई विचलन नही
जान ले,
पैदा कर पाया अब ख़ुद में
उसकी मन-भाती,
संपदा वोह वैराग की
यूई तेरे इस वैराग-चित् को
देगा ख़ुद आकर वोह,
इक दिन अपनी स्वीकृति
…… यूई
keep sharing… thoughtful poem
An insightful poem!