“वो जवानी के दिन”*****
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
मेरे आने पर दिल में
गिटार बजा करती थी
चलती थी सड़कों पर
तो कतार लगती थी
अपने भी दिन हुआ करते थे साहब!
जब मैं जवान हुआ करती थी…
अब इन बूढी़ झुर्रियों ने
कान्ति खत्म कर दी
जो दीवाने थे उनकी
दीवानगी खत्म कर दी…
पर हुआ करते थे हमारे
वो जवानी के दिन
हँसने, खेलने, इतराने के दिन
आँखों में काजल लगाकर
मैं चला करती थी
वैलेंटाइन को
गुलाबों की झड़ी लगा करती थी….
कुछ सामने से देते थे लव लेटर
कुछ सहेलियों के हाथों
भिजवाया करते थे
उन आशिकों में मरती थी
मैं भी किसी पर जब
तुम्हारे बाबू जी बुलट पर
आया करते थे…
क्या बताएं तुम्हें टिंकू !
कभी हम भी जवान हुआ करते थे !!
हमारी मोहब्बत के किस्से
तमाम हुआ करते थे…..
अतिसुंदर
धन्यवाद आपका इतने स्नेह के लिए….
यदि आपको ये कविता वाकई में पसंद आई है
कवि प्रज्ञा जी ने अपने कविता से बहुत ही प्रभावित किया है ।
लेकिन हम सोच रहे थे कि ये कविता हमें 2050 में पढ़ने को मिलेगी
चलो जल्दी ही मिल गई , बहुत सुंदर शिल्प और बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
हाहाहा
हम 10g की स्पीड से काम करते हैं…
अति सुंदर
धन्यवाद
क्या बताएं तुम्हें टिंकू !
कभी हम भी जवान हुआ करते थे !!
हमारी मोहब्बत के किस्से
तमाम हुआ करते थे…..
एक युवा कवि द्वारा वृद्धावस्था की स्थिति और उसमें सौंदर्य के संस्मरण का सुंदर चित्रण। यह दुरूह कार्य था, लेकिन कवि प्रज्ञा द्वारा उसे सुन्दर तरीक़े से प्रस्तुत करने में सफलता पाई है।
इतनी सुंदर समीक्षा पढ़कर खुश हो गया मन