सत्य क्या था
बीतता जा रहा है निरन्तर
वक्त रुकता कहाँ है किसी को
दिन उगा, दोपहर- रात फिर
चक्र है यह घुमाता सभी को।
चक्र चलता रहा है अभी तक
पौध उगती रही और मिटती रही
आने जाने की निर्मम कथा
कुदरत भी लिखती रही।
सोचता रह गया एक मानव
लक्ष्य क्या था मेरी जिंदगी का
क्यों उगा, क्यों मिटा, क्यों खपा
सत्य क्या था मेरी जिंदगी का।
सच में समय बङा बलवान है।
देखते-ही-देखते बचपन बीता और कयी जिम्मेदारी आन पङती है।
जिनकी गोद में खेले वही बुढ़ापे में आ गये
जिनकी अंगुली पकड़ चलना सीखे,
आज़ बिस्तर पर उन्हें देख
वक्त की ताक़त का आभास हो रहा
आने वाले वक्त के आइने में अपनी अक्श दिखती है।
बहुत बहुत धन्यवाद सुमन जी, आपने समीक्षात्मक टिप्पणी के रूप में बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी है। बिल्कुल सच्ची बात लिखी है आपने।
बहुत खूबसूरत रचना पाण्डेय जी
Thank you
Bahut sundar rachna
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत खूब
धन्यवाद
आपकी कविता में वास्तविकता साफ झलकती है।
बहुत बहुत धन्यवाद
बीतता जा रहा है निरन्तर
वक्त रुकता कहाँ है किसी को
दिन उगा, दोपहर- रात फिर
चक्र है यह घुमाता सभी को।
. ……. जीवन की सच्चाइयों को बयान करती हुई कवि सतीश जी की, सच्ची व सुन्दर रचना
बहुत बहुत धन्यवाद