सबका समय
कविता- सबका समय
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सब का समय आता ,
सबको समझ न आता है,
आया जिसको समझ अगर,
खुद को समझा पाया है,
छोड़ दिया वह,
सब से लड़ना,
खुद के लिए या-
भारत मां के लिए लड़ता है|
मान सम्मान,
कुल का गौरव,
पद प्रतिष्ठा,
खुद का एक रिकॉर्ड बने,
उन से लड़ना बंद किया,
खुद कि नजरों में,
खुद जिनकी न पहचान बने|
दश बाई दश के, बन्द कमरे में,
ले किताब वह हाथों में,
कभी लेटे, कभी बैठे,
कभी चल चल के पढ़ता है,
कभी दाल जली तो ,
कभी रोटी जली,
कभी भुखे भी, वह सोता है|
रहता है वह प्रेमी बनकर,
सोता है नाम मात्र ही,
सच वह बड़ भोला है,
भारत माँ का बेटा है|
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***✍ऋषि कुमार “प्रभाकर”———
खूबसूरत रचना और गम्भीर विचार
❤tq
निरंतर आपकी लेखनी में निखार आता जा रहा है ऋषि, बहुत खूब, सुन्दर रचना
❤🙏tq
बहुत खूब
❤🙏tq
उत्तम भाव
🙏❤tq